My Teaching Philosophy
I believe my role as an English teacher is to nurture and encourage the lifelong learning of my students. Through hands-on activities, classroom discussion, and even with the use of humour, I hope to prompt students to think creatively and explore their natural curiosity.
I dream of my children speaking English language so confidently and so fluently that the people who see them must feel 'who has taught them'. And, of course, I am endeavouring with this sole mission. Even my junior students are now, within a very short time span, able to converse in English and respond to the queries boldly.
It is a truth universally acknowledged that every man in possession of a prolific mission never looks back. Why should I? Days are not yonder when I and my students both will walk hand in hand along the streets of a city with envying confidence.
Dedication and services rendered have been recognised at various platforms. These are the tokens of honours conferred unto me because of my students. I owe these all to their smiling countenance!
One can better understand my teaching philosophy through a write up published on my blog. The same is being posted here.
एक शिक्षक की चाह
सुबह की किरणें रोज़ नई उम्मीद जगाती हैं. परंतु शाम ढलते-ढलते ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो समुद्र रेत पर बना बच्चों का घरौंदा लहरों में विलीन होने लगा है. उम्मीद की लकीरें रोज़ उभरती हैं और रोज़ धूंध में समा जाती है. हर दिन एक नई जिंदगी जीता हूँ और हर रात इसे दफ़न करता हूँ. जिस दिन ज़बरदस्ती नयेपन का एहसास किया, मन का पुराना भूत घुमड़ता हुआ प्रेस रिपोर्टर की नाईं घेर लेता है. निरुत्तर होकर एकांत साधना के सिवा उपचार नहीं बचता.
मैं एक शिक्षक हूँ. बच्चों का उनके उन्नति क्रम में मार्गदर्शन करना मेरा धर्म है. रोज सुबह यह सोँचकर स्कूल जाता हूँ कि आज कुछ खास करके लौटूँगा. पर जो सोचता हूँ, वह कर नहीं पाता और जो करता हूँ उसे सोचा नहीं था. जिस दिन मन की कर लिया, उस दिन बेचैन आत्मा गहरी सांस के साथ राहत महसूस करती है. पर ऐसा हर रोज़ नहीं होता. जब भी बच्चों के साथ उनकी कक्षा में होता हूँ, लगता है अपने दिमाग़ के तंतुओं को उनके दिमाग़ के साथ जोड़ दूं. भौतिक रूप से पर ऐसा संभव नहीं. कुछ सजग छात्रों को छोड़ दें, तो शेष की आँखों में एक शून्यता का भाव मुझे विचलित करता है. चाहता हूँ कि उनके ज्ञान की सीमाओं को विस्तृत कर दूं. चाहता हूँ कि उनकी संवेदनाओं को कुरेदकर उसमें अपनी मुखरता की कुछ उर्बरा डाल दूं. चाहता हूँ कि उनके उड़ान की सीमाओं को फिर से परिभाषित करूँ. चाहता ये भी हूँ कि उनके दुर्गुणों को नीलकंठ की भाँति पी जाऊँ. काश, मैं ऐसा कर पाता ! इन विचारों का बोध ही पीड़ादाई बन गयी है.
दिन व दिन निरर्थका में बीतता जा रहा है. अगर कुछ सार्थक होता भी है तो वो दूसरे समझते हैं. मैं नहीं. हमारी समझ तो बदली की ओट में समाई हुई सी लगती है.
कभी किसी ने हमें अगर सराह दिया तो आखों पर कलई चढ़ जाती है और आलोचना पर आत्मा विवेचना करने लगता हूँ. ये मानव की कमज़ोरी है. और मैं कोई महमानव तो हूँ नहीं. मैं भी उसी प्रजाति का एक हिस्सा हूँ जिसके दो आँख, एक अन्वेषी मस्तिष्क और एक रक्ताभ हृदय है. इसकी धमनियों में रक्त संचार भी होता है.
हाय रे मानव ! मारता है तो विद्रोह से और मरता है तो आँखें मूंदकर ! तेरी विवेचना समझ और शब्दों से परे है.
हमारे मित्र ने एक सुबह अपनी साफ़गोई में स्वयं को सहृदय और निश्छल जताने की भरपूर कोशिश की. मैने उनसे सहृदयता और निश्च्छालता को मापने का पैमाना पूछ लिया. उनका अपना तर्क था और मेरी अपनी दलील. हाँ, हम दोनो समझदार थे सो तर्क-कुतर्क बक्से में बंद करके अपनी- अपनी राह ली जैसे दो भैंसे आमने-सामने आने पर पहले उपर सिर उठाकर आँखें तरेरते हैं, पैर खुरचते हैं और फिर एक दूसरे की ताक़त का अंदाज़ा लगा लेते हैं. और अगर भाँप लिया की प्रतिद्वन्द्वी बराबरी का है तो विपरीत दिशा की ओर रुख़ कर लेते हैं. इस प्रसंग का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ. हम दोनों अगले दिन उसी गर्मजोशी से मिले जैसे कल कुछ हुआ ही न था.
जो मन कहता है वह कर नहीं पाता और जो करता जा रहा हूँ उसे मन स्वीकारता नहीं. दोनों में सामन्जस्य बिठाना चुंबक के उत्तरी और उत्तरी ध्रुब को पास रखने जैसा हो गया है.
इन दिनों मन में एक अपराध बोध जैसा गहरा जख्म बनता जा रहा है. ये ज़ख्म धर्म, कर्म और मन के अन्तर्द्वन्द्व की उपज है. इसकी जड़ धीरे-धीरे गहरी होती जा रही है. और मैं बेबस ! कुछ भी सार्थक कर सकने में विवश !
विवशता बहुत बड़ा शाप है. इससे मुक्ति के लिए शायद दधिचि की हड्डियाँ चाहिए. और मैं वो कहाँ से लाउँ ? इसका प्रयोग तो देवों ने पहले ही कर लिया है.
बस इसी उम्मीद में जिए जा रहा हूँ कि कल की काल्पनिक सुबह कुछ नएपन का भान कराएगी और एक सुखद बदलाव होगा.
ये उम्मीद ही अब हमारी धरोहर है. और मैं इसका रक्षक !
लेखक © मनोज कुमार मिश्रा
I dream of my children speaking English language so confidently and so fluently that the people who see them must feel 'who has taught them'. And, of course, I am endeavouring with this sole mission. Even my junior students are now, within a very short time span, able to converse in English and respond to the queries boldly.
It is a truth universally acknowledged that every man in possession of a prolific mission never looks back. Why should I? Days are not yonder when I and my students both will walk hand in hand along the streets of a city with envying confidence.
Dedication and services rendered have been recognised at various platforms. These are the tokens of honours conferred unto me because of my students. I owe these all to their smiling countenance!
One can better understand my teaching philosophy through a write up published on my blog. The same is being posted here.
एक शिक्षक की चाह
सुबह की किरणें रोज़ नई उम्मीद जगाती हैं. परंतु शाम ढलते-ढलते ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो समुद्र रेत पर बना बच्चों का घरौंदा लहरों में विलीन होने लगा है. उम्मीद की लकीरें रोज़ उभरती हैं और रोज़ धूंध में समा जाती है. हर दिन एक नई जिंदगी जीता हूँ और हर रात इसे दफ़न करता हूँ. जिस दिन ज़बरदस्ती नयेपन का एहसास किया, मन का पुराना भूत घुमड़ता हुआ प्रेस रिपोर्टर की नाईं घेर लेता है. निरुत्तर होकर एकांत साधना के सिवा उपचार नहीं बचता.
मैं एक शिक्षक हूँ. बच्चों का उनके उन्नति क्रम में मार्गदर्शन करना मेरा धर्म है. रोज सुबह यह सोँचकर स्कूल जाता हूँ कि आज कुछ खास करके लौटूँगा. पर जो सोचता हूँ, वह कर नहीं पाता और जो करता हूँ उसे सोचा नहीं था. जिस दिन मन की कर लिया, उस दिन बेचैन आत्मा गहरी सांस के साथ राहत महसूस करती है. पर ऐसा हर रोज़ नहीं होता. जब भी बच्चों के साथ उनकी कक्षा में होता हूँ, लगता है अपने दिमाग़ के तंतुओं को उनके दिमाग़ के साथ जोड़ दूं. भौतिक रूप से पर ऐसा संभव नहीं. कुछ सजग छात्रों को छोड़ दें, तो शेष की आँखों में एक शून्यता का भाव मुझे विचलित करता है. चाहता हूँ कि उनके ज्ञान की सीमाओं को विस्तृत कर दूं. चाहता हूँ कि उनकी संवेदनाओं को कुरेदकर उसमें अपनी मुखरता की कुछ उर्बरा डाल दूं. चाहता हूँ कि उनके उड़ान की सीमाओं को फिर से परिभाषित करूँ. चाहता ये भी हूँ कि उनके दुर्गुणों को नीलकंठ की भाँति पी जाऊँ. काश, मैं ऐसा कर पाता ! इन विचारों का बोध ही पीड़ादाई बन गयी है.
दिन व दिन निरर्थका में बीतता जा रहा है. अगर कुछ सार्थक होता भी है तो वो दूसरे समझते हैं. मैं नहीं. हमारी समझ तो बदली की ओट में समाई हुई सी लगती है.
कभी किसी ने हमें अगर सराह दिया तो आखों पर कलई चढ़ जाती है और आलोचना पर आत्मा विवेचना करने लगता हूँ. ये मानव की कमज़ोरी है. और मैं कोई महमानव तो हूँ नहीं. मैं भी उसी प्रजाति का एक हिस्सा हूँ जिसके दो आँख, एक अन्वेषी मस्तिष्क और एक रक्ताभ हृदय है. इसकी धमनियों में रक्त संचार भी होता है.
हाय रे मानव ! मारता है तो विद्रोह से और मरता है तो आँखें मूंदकर ! तेरी विवेचना समझ और शब्दों से परे है.
हमारे मित्र ने एक सुबह अपनी साफ़गोई में स्वयं को सहृदय और निश्छल जताने की भरपूर कोशिश की. मैने उनसे सहृदयता और निश्च्छालता को मापने का पैमाना पूछ लिया. उनका अपना तर्क था और मेरी अपनी दलील. हाँ, हम दोनो समझदार थे सो तर्क-कुतर्क बक्से में बंद करके अपनी- अपनी राह ली जैसे दो भैंसे आमने-सामने आने पर पहले उपर सिर उठाकर आँखें तरेरते हैं, पैर खुरचते हैं और फिर एक दूसरे की ताक़त का अंदाज़ा लगा लेते हैं. और अगर भाँप लिया की प्रतिद्वन्द्वी बराबरी का है तो विपरीत दिशा की ओर रुख़ कर लेते हैं. इस प्रसंग का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ. हम दोनों अगले दिन उसी गर्मजोशी से मिले जैसे कल कुछ हुआ ही न था.
जो मन कहता है वह कर नहीं पाता और जो करता जा रहा हूँ उसे मन स्वीकारता नहीं. दोनों में सामन्जस्य बिठाना चुंबक के उत्तरी और उत्तरी ध्रुब को पास रखने जैसा हो गया है.
इन दिनों मन में एक अपराध बोध जैसा गहरा जख्म बनता जा रहा है. ये ज़ख्म धर्म, कर्म और मन के अन्तर्द्वन्द्व की उपज है. इसकी जड़ धीरे-धीरे गहरी होती जा रही है. और मैं बेबस ! कुछ भी सार्थक कर सकने में विवश !
विवशता बहुत बड़ा शाप है. इससे मुक्ति के लिए शायद दधिचि की हड्डियाँ चाहिए. और मैं वो कहाँ से लाउँ ? इसका प्रयोग तो देवों ने पहले ही कर लिया है.
बस इसी उम्मीद में जिए जा रहा हूँ कि कल की काल्पनिक सुबह कुछ नएपन का भान कराएगी और एक सुखद बदलाव होगा.
ये उम्मीद ही अब हमारी धरोहर है. और मैं इसका रक्षक !
लेखक © मनोज कुमार मिश्रा